Tuesday, February 4, 2014

ख़ुमार बाराबंकवी की एक गज़ल जो काफ़ी समय पहले सुनी थी जिसे हरिहरन ने गाया था....

मुद्दतों ग़म पे ग़म उठाये हैं
तब कहीं जाके मुसकुराये हैं
इक निगाह-ए-ख़ुलूस की ख़ातिर
ज़िंदगी  भर फ़रेब खाये हैं

मुझे फिर वही याद आने लगे हैं
जिन्हें भूलने में ज़माने लगे हैं

सुना है हमें वो भुलाने लगे हैं
तो क्या हम उन्हें याद आने लगे हैं

यह कहना है उनसे मुहब्बत  हैं मुझ्को
यह कहने में उनसे ज़माने लगे हैं

क़यामत यक़ीनन क़रीब आ गयी है
'ख़ुमार' अब तो मस्जिद में जाने लगे हैं

गज़ल सुनाने के लिये लिंक नीचे दिया है. मजे लें....
http://www.youtube.com/watch?v=2S3KYSy0Xi8